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पंचायती राज्य व्यवस्था

शासन व्यवस्था


जब पंचायत राज स्थापित हो जाएगा, तब लोकमत ऐसे भी अनेक काम कर दिखाएगा जो हिंसा कभी नहीं कर सकती। - महात्मा गांधी

संदर्भ
पंचायती राज संस्थान (Panchayati Raj Institution- PRI) 
भारत में ग्रामीण स्थानीय स्वशासन (Rural Local Self-government) की एक प्रणाली है।
स्थानीय स्वशासन का अर्थ है स्थानीय लोगों द्वारा निर्वाचित निकायों द्वारा स्थानीय मामलों का प्रबंधन।
ज़मीनी स्तर पर लोकतंत्र की स्थापना करने के लिये 73वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1992 के माध्यम से पंचायती राज संस्थान को संवैधानिक स्थिति प्रदान की गई और उन्हें देश में ग्रामीण विकास का कार्य सौंपा गया।
अपने वर्तमान स्वरूप और संरचना में पंचायती राज संस्थान ने 27 वर्ष पूरे कर लिये हैं। लेकिन विकेंद्रीकरण को आगे बढ़ाने और ज़मीनी स्तर पर लोकतंत्र को मज़बूत करने के लिये अभी बहुत कुछ किया जाना शेष है।
भारत में पंचायती राज का उद्भव
भारत में पंचायत राज के इतिहास को विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण से निम्नलिखित कालक्रमों में विभाजित किया जा सकता है:

वैदिक युग: प्राचीन संस्कृत शास्त्रों में 'पंचायतन' शब्द का उल्लेख मिलता है, जिसका अर्थ है एक आध्यात्मिक व्यक्ति सहित पाँच व्यक्तियों का समूह।
धीरे-धीरे ऐसे समूहों में एक आध्यात्मिक व्यक्ति को शामिल करने की अवधारणा लुप्त हो गई।
ऋग्वेद में स्थानीय स्व-इकाइयों के रूप में सभा, समिति और विदथ का उल्लेख मिलता है।
ये स्थानीय स्तर के लोकतांत्रिक निकाय थे। राजा कुछ कार्यों और निर्णयों के संबंध में इन निकायों की स्वीकृति प्राप्त किया करते थे।      
महाकाव्य युग भारत के दो महान महाकाव्य काल को इंगित करता है- रामायण और महाभारत।
रामायण के अध्ययन से संकेत मिलता है कि प्रशासन दो भागों- पुर और जनपद (अर्थात् नगर और ग्राम) में विभाजित था।
राज्य में एक जाति पंचायत (Caste Panchayat) भी होती थी और जाति पंचायत द्वारा निर्वाचित व्यक्ति राजा के मंत्री-परिषद का सदस्य होता था।
महाभारत के 'शांति पर्व', कौटिल्य के 'अर्थशास्त्र' और मनु स्मृति से भी ग्रामों के स्थानीय स्वशासन के पर्याप्त साक्ष्य प्राप्त होते हैं।
महाभारत के अनुसार, ग्राम के ऊपर 10, 20, 100 और 1,000 ग्राम समूहों की इकाइयाँ विद्यमान थीं।
'ग्रामिक' ग्राम का मुख्य अधिकारी होता था जबकि 'दशप' दस ग्रामों का प्रमुख होता था। विंश्य अधिपति, शत ग्राम अध्यक्ष और शत ग्राम पति क्रमशः 20, 100 और 1000 ग्रामों के प्रमुख होते थे।
वे स्थानीय स्तर पर कर एकत्र करते थे और अपने ग्रामों की रक्षा के लिये उत्तरदायी थे।
प्राचीन काल: कौटिल्य के अर्थशास्त्र में ग्राम पंचायतों का उल्लेख मिलता है।
नगर को 'पुर' कहा जाता था और इसका प्रमुख 'नागरिक' होता था।
स्थानीय निकाय किसी भी राजसी हस्तक्षेप से मुक्त थे।
मौर्य तथा मौर्योत्तर काल में भी ग्राम का मुखिया वृद्धों की एक परिषद (Council of Elders) की सहायता से ग्रामीण जीवन में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करता रहा।
यह प्रणाली गुप्त काल में भी बनी रही, यद्यपि नामकरण में कुछ परिवर्तन हुए; इस काल में ज़िला अधिकारी को विषयपति और ग्राम के प्रधान को ग्रामपति के रूप में जाना जाता था।
इस प्रकार, प्राचीन भारत में स्थानीय शासन की एक सुस्थापित प्रणाली विद्यमान थी जो परंपराओं और रीति-रिवाजों के एक निर्धारित रूपरेखा के आधार पर संचालित होती थी।
यहाँ यह उल्लेख करना भी महत्त्वपूर्ण है कि पंचायत के प्रमुख के रूप में यहाँ तक कि सदस्यों के रूप में भी स्त्रियों की भागीदारी का कोई संदर्भ प्राप्त नहीं होता।      
मध्य काल: सल्तनत काल के दौरान दिल्ली के सुल्तानों ने अपने राज्य को प्रांतों में विभाजित किया था जिन्हें 'विलायत' कहा जाता था।
ग्राम के शासन के लिये तीन महत्त्वपूर्ण अधिकारी होते थे- 
1. प्रशासन के लिये मुकद्दम 
2. राजस्व संग्रह के लिये पटवारी
3. पंचों की सहायता से विवादों के समाधान के लिये चौधरी
ग्रामों को स्वशासन के संबंध में अपने अधिकार क्षेत्र के भीतर पर्याप्त शक्तियाँ प्राप्त थी।
मध्य काल में मुगल शासन के तहत जातिवाद और शासन की सामंतवादी प्रणाली ने धीरे-धीरे ग्रामीण स्वशासन को नष्ट कर दिया।
पुनः यह उल्लेखनीय है कि मध्य काल में भी स्थानीय ग्राम प्रशासन में स्त्रियों की भागीदारी का कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता।      
ब्रिटिश काल: ब्रिटिश शासन के अंतर्गत ग्राम पंचायतों की स्वायत्तता समाप्त हो गई और वे कमज़ोर हो गए।
वर्ष 1870 में भारत में प्रतिनिधि स्थानीय संस्थाओं का उद्भव हुआ।
वर्ष 1870 के प्रसिद्ध मेयो प्रस्ताव (Mayo’s resolution) ने स्थानीय संस्थाओं की शक्तियों और उत्तरदायित्वों में वृद्धि कर उनके विकास को गति दी।
वर्ष 1870 में ही शहरी नगरपालिकाओं में निर्वाचित प्रतिनिधियों की अवधारणा को प्रस्तुत किया गया।
वर्ष 1857 के विद्रोह ने शाही वित्त पर भारी दबाव बना दिया था और स्थानीय सेवा को स्थानीय कराधान से वित्तपोषित करना आवश्यक माना गया। इस प्रकार यह राजकोषीय मज़बूरी थी कि विकेंद्रीकरण पर लॉर्ड मेयो के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया गया।
मेयो द्वारा उठाए गए कदमों का अनुसरण करते हुए लॉर्ड रिपन ने वर्ष 1882 में इन स्थानीय संस्थाओं को उनका अत्यंत आवश्यक लोकतांत्रिक ढाँचा प्रदान किया।
सभी बोर्डों (जो उस समय अस्तित्व में थे) में निर्वाचित गैर-अधिकारियों के दो-तिहाई बहुमत को अनिवार्य कर दिया गया और इन निकायों के अध्यक्ष को भी निर्वाचित गैर-अधिकारियों में से ही चुना जाना था।
इसे भारत में स्थानीय स्वशासन का मैग्ना कार्टा माना जाता है।      
वर्ष 1907 में स्थानीय स्वशासन संस्थाओं को सी.ई.एच. होबहाउस की अध्यक्षता में ‘केंद्रीकरण पर रॉयल कमीशन’ (Royal Commission on Centralisation) के गठन से अत्यंत बल मिला।
इस कमीशन/आयोग ने ग्राम स्तर पर पंचायतों के महत्त्व को चिह्नित किया।      
इसी पृष्ठभूमि में वर्ष 1919 के 'मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार' ने स्थानीय सरकार के विषय को प्रांतों के अधिकार क्षेत्र में स्थानांतरित कर दिया।
इस सुधार में यह अनुशंसा भी की गई कि जहाँ तक ​​संभव हो स्थानीय निकायों के पास एक पूर्ण नियंत्रण की क्षमता होनी चाहिये और बाह्य नियंत्रण से उन्हें संभवतः पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त होनी चाहिये।
इन पंचायतों के दायरे में ग्रामों की सीमित संख्या ही थी और इनके कार्य भी सीमित थे; संगठनात्मक और राजकोषीय बाधाओं के कारण ये ग्रामीण स्तर पर स्थानीय स्वशासन की लोकतांत्रिक और जीवंत संस्थाओं के रूप में परिणत न हो सकीं।
फिर भी वर्ष 1925 तक आठ प्रांतों ने पंचायत अधिनियमों को पारित कर लिया था और वर्ष 1926 तक छह देशी रियासतों ने भी पंचायत कानून पारित कर लिये थे। स्थानीय निकायों को अधिक शक्तियाँ दी गईं और करारोपण के अधिकारों को कम कर दिया गया। लेकिन इनसे स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं की स्थिति में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ।
स्वातंत्र्योत्तर काल (स्वतंत्रता के बाद की अवधि): संविधान के अनुच्छेद 40 में पंचायतों का उल्लेख किया गया और अनुच्छेद 246 के माध्यम से स्थानीय स्वशासन से संबंधित किसी भी विषय के संबंध में कानून बनाने का अधिकार राज्य विधानमंडल को सौंपा गया।
लेकिन संविधान में पंचायतों के इस समावेशन को तत्कालीन नीति-निर्माताओं की सर्वसम्मति प्राप्त नहीं थी और इसका सबसे प्रबल विरोध स्वयं संविधान निर्माता बी.आर. अंबेडकर ने किया था।
ग्राम पंचायत के समर्थकों और विरोधियों के बीच अत्यधिक विमर्श के बाद ही अंततः पंचायतों को संविधान में स्थान मिला और इसे राज्य के नीति निदेशक सिद्धांत के अंतर्गत अनुच्छेद 40 में शामिल किया गया। 
चूँकि नीति निदेशक सिद्धांत बाध्यकारी सिद्धांत नहीं हैं, परिणामस्वरूप पूरे देश में इन निकायों के लिये सार्वभौमिक या एकसमान संरचना का अभाव रहा।
स्वतंत्रता के बाद एक विकास पहल के रूप में भारत ने 2 अक्तूबर, 1952 को गांधी जयंती की पूर्वसंध्या पर सामुदायिक विकास कार्यक्रम (Community Development Programmes- CDP) को लागू किया जिसकी वृहत प्रेरणा अमेरीकी विशेषज्ञ अल्बर्ट मेयर द्वारा शुरू की गई इटावा परियोजना (Etawah Project) से प्राप्त हुई थी।
इसमें ग्रामीण विकास की लगभग सभी गतिविधियों को शामिल किया गया जिन्हें लोगों की भागीदारी के साथ ग्राम पंचायतों की सहायता से लागू किया जाना था।
वर्ष 1953 में सामुदायिक विकास कार्यक्रम के सहयोग के लिये राष्ट्रीय विस्तार सेवा (National Extension Service) की भी शुरुआत की गई। लेकिन यह कार्यक्रम भी कोई महत्त्वपूर्ण भूमिका न निभा सका।
CDP की विफलता के कई कारण थे, जैसे नौकरशाही की बाधाएँ व अत्यधिक राजनीति, लोगों की भागीदारी में कमी, प्रशिक्षित एवं योग्य कर्मचारियों की कमी और विशेष रूप से CDP को लागू करने में ग्राम पंचायतों सहित स्थानीय निकायों की रुचि का अभाव।
वर्ष 1957 में राष्ट्रीय विकास परिषद (National Development Council) ने सामुदायिक विकास कार्यक्रम के कार्यकरण पर विचार करने हेतु बलवंत राय मेहता की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया।
समिति ने पाया कि CDP की विफलता का प्रमुख कारण लोगों की भागीदारी में कमी थी।
समिति ने त्रिस्तरीय पंचायती राज संस्थाओं का सुझाव दिया- 
1. ग्राम स्तर पर ग्राम पंचायत
2. प्रखंड (ब्लॉक) स्तर पर पंचायत समिति
3. ज़िला स्तर पर ज़िला परिषद     
लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण की यह योजना सर्वप्रथम 2 अक्तूबर, 1959 को राजस्थान में शुरू की गई।
आंध्र प्रदेश में यह योजना 1 नवंबर, 1959 को शुरू की गई। इस संबंध में आवश्यक विधान भी पारित कर लिये गए और असम, गुजरात, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा एवं पंजाब में भी इसे लागू किया गया।
वर्ष 1977 में अशोक मेहता समिति की नियुक्ति ने पंचायत राज की अवधारणाओं और रीतियों में नए दृष्टिकोण का सूत्रपात किया।
समिति ने द्विस्तरीय पंचायत राज संरचना की अनुशंसा की जिसमें ज़िला परिषद और मंडल पंचायत शामिल थे।      
योजना विशेषज्ञता के उपयोग और प्रशासनिक सहायता की सुनिश्चितता के लिये राज्य स्तर से नीचे ज़िले को विकेंद्रीकरण के प्रथम बिंदु के रूप में रखने की अनुशंसा की गई थी।
समिति की अनुशंसा के आधार पर कर्नाटक जैसे कुछ राज्यों ने इस व्यवस्था को प्रभावी रूप से लागू किया।
कालांतर में पंचायतों के पुनरुद्धार और इन्हें नई ऊर्जा प्रदान करने के उद्देश्य से भारत सरकार ने विभिन्न समितियों की नियुक्ति की। इनमें से कुछ सबसे महत्त्वपूर्ण समितियाँ थीं- 
हनुमंत राव समिति (1983)
जी.वी.के. राव समिति (1985) 
एल.एम. सिंघवी समिति (1986)
केंद्र-राज्य संबंधों पर सरकारिया आयोग (1988)
पी.के. थुंगन समिति (1989)
हरलाल सिंह खर्रा समिति (1990)
जी.वी.के राव समिति (1985)
ने ज़िले को योजना की बुनियादी इकाई बनाने और नियमित चुनाव आयोजित कराने की सिफारिश की जबकि एल.एम. सिंघवी ने पंचायतों को सशक्त करने के लिये उन्हें संवैधानिक दर्जा प्रदान करने तथा अधिक वित्तीय संसाधन सौंपने की सिफारिश की।
संशोधन का चरण 64वें संशोधन विधेयक (1989) के साथ शुरू हुआ जिसे राजीव गांधी सरकार द्वारा पंचायत राज संस्थाओं को सशक्त बनाने के उद्देश्य से प्रस्तुत किया गया था लेकिन यह विधेयक राज्य सभा में पारित नहीं हो सका।
संविधान (74वाँ संशोधन) विधेयक (पंचायत राज संस्थाओं और नगर पालिकाओं के लिये एक संयुक्त विधेयक) वर्ष 1990 में प्रस्तुत किया गया था लेकिन इसे कभी सदन में चर्चा के लिये नहीं लाया गया।
प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हा राव के कार्यकाल के दौरान सितंबर 1991 में 72वें संविधान संशोधन विधेयक के रूप में एक व्यापक संशोधन प्रस्तुत किया गया।
73वें और 74वें संविधान संशोधन को दिसंबर, 1992 में संसद द्वारा पारित कर दिया गया। इन संशोधनों के माध्यम से ग्रामीण और शहरी भारत में स्थानीय स्वशासन की नींव डाली गई।
24 अप्रैल, 1993 को संविधान (73वाँ संशोधन) अधिनियम, 1992 और 1 जून, 1993 को संविधान (74वाँ संशोधन) अधिनियम, 1992 के रूप में ये कानून प्रवर्तित हुए।

73वें व 74वें संशोधन की मुख्य विशेषताएँ

इन संशोधनों ने संविधान में दो नए भागों को शामिल किया- भाग IX 'पंचायत' (जिसे 73वें संशोधन द्वारा जोड़ा गया) और भाग IXA 'नगरपालिकाएँ' (जिसे 74वें संशोधन द्वारा जोड़ा गया)।
लोकतांत्रिक प्रणाली की बुनियादी इकाइयों के रूप में ग्राम सभाओं (ग्राम) और वार्ड समितियों (नगर पालिका) को रखा गया जिनमें मतदाता के रूप में पंजीकृत सभी वयस्क सदस्य शामिल होते हैं।
उन राज्यों को छोड़कर जिनकी जनसंख्या 20 लाख से कम हो ग्राम, मध्यवर्ती (प्रखंड/तालुक/मंडल) और ज़िला स्तरों पर पंचायतों की त्रि-स्तरीय प्रणाली लागू की गई है (अनुच्छेद 243B)।
सभी स्तरों पर सीटों को प्रत्यक्ष निर्वाचन द्वारा भरा जाना है [अनुच्छेद 243C(2)]।
अनुसूचित जातियों (SCs) और अनुसूचित जनजातियों (STs) के लिये सीटों का आरक्षण किया गया है तथा सभी स्तरों पर पंचायतों के अध्यक्ष के पद भी जनसंख्या में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के अनुपात के आधार पर आरक्षित किये गए हैं।
उपलब्ध सीटों की कुल संख्या में से एक तिहाई सीटें महिलाओं के लिये आरक्षित हैं।
SCs और STs के लिये आरक्षित स्थानों में से एक तिहाई सीटें इन वर्गों की महिलाओं के लिये आरक्षित हैं।
सभी स्तरों पर अध्यक्षों के एक तिहाई पद भी महिलाओं के लिये आरक्षित हैं (अनुच्छेद 243D)।
प्रतिनिधियों के लिये एक समान पाँच वर्षीय कार्यकाल निर्धारित किया गया है और कार्यकाल की समाप्ति से पहले नए निकायों के गठन के लिये निर्वाचन प्रक्रिया पूरी करना आवश्यक है।
निकायों के विघटन की स्थिति में छह माह के अंदर निर्वाचन कराना अनिवार्य है (अनुच्छेद 243E)।
मतदाता सूची के अधीक्षण, निर्देशन और नियंत्रण के लिये प्रत्येक राज्य में स्वतंत्र चुनाव आयोग होंगे (अनुच्छेद 243K)।
आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय के लिये योजनाएँ तैयार करने और इन योजनाओं (इनके अंतर्गत वे योजनाएँ भी शामिल हैं जो ग्यारहवीं अनुसूची में सूचीबद्ध विषयों के संबंध में हैं) को कार्यान्वित करने के लिये पंचायतों को शक्ति व प्राधिकार प्रदान करने के लिये राज्य विधान मंडल विधि बना सकेगा (अनुच्छेद 243G)।
पंचायतों और नगर पालिकाओं द्वारा तैयार की गई योजनाओं को समेकित करने के लिये 74वें संशोधन में एक ज़िला योजना समिति (District Planning Committee) का प्रावधान किया गया है (अनुच्छेद 243ZD)।
राज्य सरकारों से बजटीय आवंटन, कुछ करों के राजस्व की साझेदारी, करों का संग्रहण और इससे प्राप्त राजस्व का अवधारण, केंद्र सरकार के कार्यक्रम एवं अनुदान, केंद्रीय वित्त आयोग के अनुदान आदि के संबंध में उपबंध किये गए हैं (अनुच्छेद 243H)।
प्रत्येक राज्य में एक वित्त आयोग का गठन करना ताकि उन सिद्धांतों का निर्धारण किया जा सके जिनके आधार पर पंचायतों और नगरपालिकाओं के लिये पर्याप्त वित्तीय संसाधनों की उपलब्धता सुनिश्चित की जाएगी (अनुच्छेद 243I)।
संविधान की ग्यारहवीं अनुसूची पंचायती राज निकायों के दायरे में 29 कार्यों को शामिल करती है।
निम्नलिखित क्षेत्रों को सामाजिक-सांस्कृतिक और प्रशासनिक कारणों से अधिनियम के प्रवर्तन से छूट दी गई है:
आंध्र प्रदेश, बिहार, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा और राजस्थान राज्यों में पाँचवीं अनुसूची के तहत सूचीबद्ध अनुसूचित क्षेत्र।
नगालैंड, मेघालय और मिज़ोरम राज्य।
पश्चिम बंगाल राज्य में दार्जिलिंग ज़िले के पहाड़ी क्षेत्र जिनके लिये दार्जिलिंग गोरखा हिल काउंसिल मौजूद है।      
संविधान संशोधन अधिनियम के प्रावधानों के अनुरूप भारत सरकार द्वारा पंचायतों के प्रावधान (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) अधिनियम, 1996 [The Provisions of the Panchayats (Extension to the Scheduled Areas) Act-PESA], पारित किया गया है।      
पंचायती राज संस्थाओं का मूल्यांकन
पंचायती राज संस्थाओं ने 27 वर्षों की अपनी यात्रा में उल्लेखनीय सफलता भी पाई है और भारी विफलता भी झेली है जिनका मूल्यांकन उनके द्वारा तय किये गए लक्ष्यों के आधार पर किया जाता है।
जहाँ पंचायती राज संस्थाएँ ज़मीनी स्तर पर सरकार तथा राजनीतिक प्रतिनिधित्व के एक और स्तर के निर्माण में सफल रही हैं वहीं बेहतर प्रशासन प्रदान करने के मामले में वे विफल रही हैं।
देश में लगभग 250,000 पंचायती राज संस्थाएँ एवं शहरी स्थानीय निकाय और तीन मिलियन से अधिक निर्वाचित स्थानीय स्वशासन प्रतिनिधि मौजूद हैं।
73वें और 74वें संविधान संशोधन द्वारा यह अनिवार्य किया गया है कि स्थानीय निकायों के कुल सीटों में से कम-से-कम एक तिहाई तिहाई सीटें महिलाओं के लिये आरक्षित हों। भारत में निर्वाचित पदों पर आसीन महिलाओं की संख्या विश्व में सर्वाधिक है (1.4 मिलियन)। अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के उम्मीदवारों के लिये भी स्थानों और सरपंच/प्रधान के पदों का आरक्षण किया गया है।
पंचायती राज संस्थाओं पर विचार करते हुए किये गए अध्ययन से पता चला है कि स्थानीय सरकारों में महिला राजनीतिक प्रतिनिधित्व से महिलाओं के आगे आने और अपराधों की रिपोर्ट दर्ज कराने की संभावनाओं में वृद्धि हुई है।
महिला सरपंचों वाले ज़िलों में विशेष रूप से पेयजल, सार्वजनिक सुविधाओं आदि में वृहत निवेश किया गया है।    
इसके अलावा, राज्यों ने विभिन्न शक्ति हस्तांतरण प्रावधानों को वैधानिक सुरक्षा प्रदान की है जिन्होंने स्थानीय सरकारों को व्यापक रूप से सशक्त बनाया है।
उत्तरोत्तर केंद्रीय वित्त आयोगों ने स्थानीय निकायों के लिये धन आवंटन में उल्लेखनीय वृद्धि की है इसके अलावा प्रदत्त अनुदानों में भी वृद्धि की गई है।
15वाँ वित्त आयोग स्थानीय सरकारों के लिये आवंटन में और अधिक वृद्धि पर विचार कर रहा है ताकि इन्हें किये जाने वाले आवंटन को अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुरूप बनाया जा सके।
24 अप्रैल, 2022 को 12वांँ राष्ट्रीय पंचायती राज दिवस मनाया गया। 
इस अवसर पर प्रधानमंत्री ने ‘गांँवों का सर्वेक्षण और ग्रामीण क्षेत्रों में तात्कालिक प्रौद्योगिकी के साथ मानचित्रण (Survey of Villages and Mapping with Improvised Technology in Village Areas-SWAMITVA) या स्वामित्व योजना के तहत ई-संपत्ति कार्ड के वितरण की शुरुआत की। 

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