धरा के उस पार मिलोगी
इस धरा के धीरे से कहता रहा व्याकुल मन से
तुम मिलोगी उस शिप में रहती हो तुम जिस नीर में,
बीस वर्षा-वास बीते
सब आए पर तुम ना आए,
बोलो इस बार प्रिये
उस धरा के पार मिलोगी,
औंस सी कोमल हो तुम,चंद्र सा है मुख तुम्हारा
उस धरा के धीर पर बोलो प्रिये इस बार मिलोगी,
यौवन तुम्हारा खिल रहा है,नभ के चंद्र तारों के जैसा
उस धरा के धीर पर बोलो प्रिये बार मिलोगी,
रण-रथ हुआ है नभ में इस पल
फैली है सारी चंद्रशिलाएं
यदि इस बार न मिल पाया प्रिये
तो धरा के उस पार मिलोगी॥
●विजय रावत
तुम मिलोगी उस शिप में रहती हो तुम जिस नीर में,
बीस वर्षा-वास बीते
सब आए पर तुम ना आए,
बोलो इस बार प्रिये
उस धरा के पार मिलोगी,
औंस सी कोमल हो तुम,चंद्र सा है मुख तुम्हारा
उस धरा के धीर पर बोलो प्रिये इस बार मिलोगी,
यौवन तुम्हारा खिल रहा है,नभ के चंद्र तारों के जैसा
उस धरा के धीर पर बोलो प्रिये बार मिलोगी,
रण-रथ हुआ है नभ में इस पल
फैली है सारी चंद्रशिलाएं
यदि इस बार न मिल पाया प्रिये
तो धरा के उस पार मिलोगी॥