1863 ई. में जॉन लुवाक ने पाषाण काल का वर्गीकरण किया-
1. पुरा पाषाण काल एवं
2. नव पाषाण काल ।
एडवर्ड लारटेट ने 'पुरा पाषाण काल' को 3 भागों में वर्गीकृत किया -
1. पूर्व/निम्न पुरापाषाण काल,
2. मध्य पुरा पाषाण काल एवं
3. उच्च पुरा पाषाण काल
इन शब्दावलियों में 'मध्य पाषाण काल' अपेक्षाकृत बहुत हाल में जुड़ा है। भारतीय पाषाण युग के सम्बन्ध में एकाधिक युगों की विशेषताएं आपस में मिलती-जुलती हैं। जैसे-जहां एक ओर भारत में शुद्ध रूप से नवपाषाण युगीन स्थल हैं, किन्तु ज्यादातर नवपाषाण तथा ताम्र युगीन तत्वों का मिश्रण दिखाई देता है।
मानव होने का अर्थ क्या है?
होमो सेपियन्स (प्रज्ञ मानव) नर वानरों की 180 प्रजातियों में से एक है। ये दो पैरों पर चल सकते हैं। इस वजह से हाथों की अपेक्षा इनकी टांगें अधिक लम्बी होती हैं। इनकी रीढ़ की हड्डी S आकार की होती है। इनके हाथ परिग्राही अर्थात् पंजों में कसने के लिए उपयुक्त होते हैं। अपनी हाथों की अंगुलियों तथा बड़े अंगूठे के जरिये ये पत्थर के औजार से लेकर पेंसिल तक का इस्तेमाल कर सकते हैं। अन्य जन्तुओं की तुलना में इनके जबड़े छोटे होते हैं। इनके शिशु अविकसित मस्तिष्क केसाथ जन्म लेते हैं। इसलिए लम्बे समय तक अनिवार्य रूप से मातृत्व की आवश्यकता होती है। मस्तिष्क का बढ़ता आकार, स्मरण की बढ़ती क्षमता, जटिल व्यवहार प्रक्रियाओं को जन्म देता है। इसी समझ के बूते मानव अपने पर्यावरण को उपयुक्त तकनीक के माध्यम से नियंत्रित करने की क्षमता रखता है। चिम्पाजी जैसे वानर परस्पर संवाद के लिए प्रतीकों का प्रयोग करते हैं किन्तु मनुष्य बुद्धिमता के कारण सामाजिक व्यवहार व सांस्कृतिक स्वरूप में कहीं अधिक वैविध्यपूर्ण व जटिल होता है। अपने निवास के लिए विशिष्ट स्थानों का चयन व निर्माण प्रतीकात्मक सम्प्रेषण व अभिव्यक्ति, कलात्मक अभिव्यक्ति, दफनाने की विशिष्ट व्यवस्था व कर्मकाण्ड, व्यक्तिगत तथा सामूहिक परिचय जैसी अद्वितीय विशेषताएं मानव प्रजाति से जुड़ी हैं। भारतीय प्रागैतिहास को उद्घाटित करने का श्रेय डॉ. प्राइमरोज नामक अंग्रेज को जाता है। उन्होंने 1842 ई. में कर्नाटक के लिंगसुगुर नामक स्थान से प्रागैतिहासिक औजारों की खोज की।
मद्रास के निकट 'पल्लवरम' में 1863 की गर्मियों के दौरान भारतीय भू-विज्ञान सर्वेक्षण के अधिकारी रॉबर्ट ब्रूस फुट अपने रूटीन कार्य में व्यस्त थे। उसी दौरान उनकी नजर एक बजरी के गड्ढे में दबे एक पत्थर पर पड़ी, जिसे उन्होंने उठा लिया। देखने में यह भूरे क्वार्टजाइट का टुकड़ा था, किन्तु ब्रूसफुट ने उस पर मानवीय प्रयत्नों के सुनिश्चित प्रमाणों का आभास पाया। उन्होंने एक पत्थर का हस्त कुठार खोजा था। भारत में प्राप्त होने वाला यह पहला पाषाणकालीन औजार था। सन् 1856 में 'ल मेसुरिए' नामक रेलवे अभियंता ने मध्यप्रदेश के न्यागुड़ीके पास चर्ट की बनी तीराग्र को पाया था। इसी दौरान चार्ल्स लायल व जे.डी. इवांस ने विन्ध्य क्षेत्र, जबलपुर, सिन्ध, बंगाल, अण्डमान क्षेत्र व पूर्व ऐतिहासिक खोजों में विशेष रूची दिखाई। रॉबर्ट ब्रूसफुट (भूतत्व सर्वेक्षक) द्वारा खोजे गये उपकरणों को 1873 ई. को वियना में आयोजित अन्तरराष्ट्रीय प्रदर्शनी में रखा गया। रॉबर्ट ब्रूसफुट को 'भारतीय प्रागैतिहासिक पुरातत्व का जनक' कहा जाता है।
भारतीय उपमहाद्वीप में हॉमोनिड अवशेष :-
भारतीय उपमहाद्वीप से जन्तुओं की हड्डियां तथा पत्थरों के औजार बहुतायत से मिलते हैं। वहीं हॉमोनिड अवशेष के प्रमाण बहुत कम मिले हैं। भारतीय उपमहाद्वीप में सर्वप्रथम 1932 ई. में पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के 'पोतवार पठार' से दो मानव खोपड़ियां प्राप्त हुईं, जिनको जी. ई. लुईस ने 'रामापिथेकस' व 'शिवापिथेकस' की संज्ञा दी। ब्रह्मपिथेकस की प्राप्ति के साथ ही तीनों को संयुक्त रूप से शिवालिक का 'देववानर' संज्ञा प्रदान की गई। सन् 1966 में अफगानिस्तान के 'लुई दुप्री' (दर्रा-ए-कुर) नामक स्थान से 'नियंडरथल मानव के जीवाश्म प्राप्त हुए। सन् 1982 में हौशंगाबाद (मध्य प्रदेश) के पास नर्मदा नदी के किनारे 'हथनोरा' नामक गांव में अरुण सोनकिया को हॉमोनिड मानव कपाल की प्राप्ति हुई। यह 30 वर्षीय युवती का अवशेष था । इसे विकसित होमो इरेक्ट्स की श्रेणी में रखा गया तथा 'होमोइरेक्टस नर्मदेनसिस' नाम दिया गया। यह भारत में खोजा गया प्रथम मानव जीवाश्म था। सन् 1983 में रावलपिण्डी के पास रिवात में शिवालिक पहाड़ियों के विशेष में ऐसे उपकरणों का समूह प्राप्त हुआ है, जिन्हें 19 लाख वर्ष पुराना बताया गया। सन् 2001 में थी. राजेन्द्रन ने तमिलनाडु के विल्लुपुरम
जिला के ओदै' में एक 'शिशु का पूरा कपाल' खोज निकाला।(ugc net2019) एच.डी. सांकलिया द्वारा पुणे के मूल मुधा नदी के किनारे नर व मादा होमो सेपियन्स के अवशेष प्राप्त किये। इसी प्रकार वी.ए. वाकणकर ने भीमबेटका (मध्य प्रदेश) से 'वयस्क होमो सेपियंस' के अवशेष खोजे। महाराष्ट्र में बोरी नामक स्थान से हुए उत्खनन के आधार पर मानव का अस्तित्व 14 लाख वर्ष पूर्व माना जा सकता है।
1.10 करोड़ वर्ष पुराना जीवाश्म मिला: हाल के अनुसन्धानों में बीरबल साहनी पुराविज्ञान इस्टिट्यूट (लखनऊ) के शोधकर्ताओं ने गुजरात के कच्छ में 1 करोड़ 10 लाख पुराने मानव जीवाश्म की खोज की है। उत्खनन में प्राप्त ऊपरी जबड़े यह जीवाश्म किसी वयस्क आदि मानव का है। यह खोज भारतीय प्रायद्वीप में प्राचीन महाकपि की मौजूदगी की पुष्टि करता है। प्राचीन नरमानव को भारत और पाकिस्तान के शिवालिक में मिओसेन की तलछटी में पाया गया जिसे मानव व महाकपि के बीच की कड़ी के रूप में देखा जा रहा है।
महत्वपूर्ण तथ्य
पुरा पाषाण काल के लोग नेग्रिटो प्रजाति के थे। पुरापाषाण काल में हथियारों का आविष्कार एक क्रांतिकारी घटना है।
बेल केम्ब्रिज अभियान दल के डी. टेरा व पीटरसन ने शिवालिक पहाड़ियों के पोटवार पठार, सोहन नदी घाटी, नर्मदा घाटी, कोर्तलयार नदी घाटी (तमिलनाडु) का सर्वेक्षण कर पाषाणकालीन संस्कृति के साक्ष्य प्राप्त किये। पुरापाषाणकालीन लोग पूर्णतः आखेट पर निर्भर थे। अग्नि से परिचित नहीं थे। खानाबदोश जीवन व्यतीत करते थे तथा खाद्य पदार्थों के उपभोक्ता थे, उत्पादक नहीं। 'होमो हैविलस' को प्रथम मानव या कारीगर मानव कहा जाता है क्योंकि इसने ही सबसे पहले पत्थर के औजार बनाये थे। अधिकांश विद्वानों का मत है कि भारत में आदि मानव का उद्भव सबसे पहले पंजाब में हुआ जबकि बर्किट का मत है कि दक्षिण में हुआ।
वर्ष 1985 में मिश्रा व राजगुरु के द्वारा धार क्षेत्र में प्लीस्टोसीन काल के मौसम को बहुत भिन्न पाया। (विशेष रूप से डीडवाना व सिंगी तालाब (नागौर) क्षेत्र में)यहां पाई जाने वाली खारे पानी की झीलों से सूचना मिलती है कि मध्य होलोसीन काल में वर्षा पर्याप्त मात्रा में होती थी। इसलिए कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि इसी अवधि में यहां सर्वाधिक प्रागैतिहासिक सभ्यता का विकास हुआ।
भारत में 'प्राग इतिहास' का मुख्यालय नागपुर में है। प्रथम भारतीय प्राग ऐतिहासिक अध्ययन दल का गठन भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के महानिदेशक के.एन. दीक्षित ने किया।
उपकरण प्रारूप :-
उपकरण बनाने के लिए एक उपयुक्त पत्थर चुना जाता है फिर किसी बटिकाश्म (Pebble) से हथौड़े की तरह उस पर चोट की जाती है। इसमें उस पत्थर का छोटा सा टुकड़ा अलग हो जाता है जिस पर पत्थर को बार-बार चोट करके उसे अभीष्ट रूप में ढाल सकते हैं। उसे क्रोड (core) कहा जाता है और उसमें जो छोटे-छोटे टुकड़े उतारे जाते हैं उन्हें शल्क (flakes) कहते हैं। जहां किसी स्थल पर मिलने वाले अधिकांश उपकरण प्ररूप शल्कों से तैयार किये गये हो, तब उस उद्योग को उन्नत प्रौद्योगिकी पर आधारित माना जाता है। शल्क उतारने की सामान्य विधि के अलावा दो महत्वपूर्ण
तकनीकें और भी हैं-
1. क्लैक्टॉनी तकनीक :- इसका पहला विवरण 4 लाख वर्ष पूर्व इंग्लैण्ड के क्लैक्टोन सी नामक स्थान से प्राप्त। इस विधि से बने शल्क बड़े और मोटे होते हैं।
2. लवाल्वाई तकनीक :- इसका पहला विवरण 2 लाख वर्ष पूर्व फ्रांस के लवाल्वई नामक स्थल से मिलता है। इसमें बने शल्क प्राय: छोटे व मध्यम आकार के होते हैं। (विशाखापट्टनम के तटीय क्षेत्रों से प्राप्त)
आधारभूत उपकरण प्ररूप :-
1. गण्डासा और खण्डक (Chopper & Chopping) :- ये कोर उपकरण है। जब कोर से शल्क एक ही तल से उतारे जाते हैं अर्थात् उनकी एक ही धार बनाई जाती है तो उसे गण्डासा कहते हैं। जब धार दोनों ओर बनाई जाती है उसे खण्डक कहते हैं।
2. हस्तकुठार और विदारणी (Handaxe & cleaver) • ये अतीत के सबसे पुराने परिचित उपकरण हैं। मोटे तौर पर ये तिकोने क्रोड उपकरण हैं। जिनमें दोनों ओर धार बनाई जाती है। विदारणी 'U' तथा 'V' आकार की होती है। यदि हस्तकुठार लम्बा-चौड़ा, भारी-भरकम और अनगढ़ हो तो उसे 'एबीवेली हस्त कुठार' कहते हैं।
3. खुरचनी (Scraper) :- इनमें किसी मोटे शल्क केएक या अनेक किनारों की घिसाई की जाती है ताकि एक तेज और मजबूत किनारा बन जाए।
4. वेधनी (Point) - किसी भी ऐसे शल्क या फलक के प्ररूप को वेधनी कहते हैं जिसमें एक जगह मिलने वाले दोनों किनारों के साथ-साथ घिसाई कर दी जाती है ताकि एक पतला नुकीला काम करने वाला सिरा बन जाए ।
5. तक्षनी (Burin) - यह शल्क या फलक से बनने वाला उपकरण है। इसमें दो ऐसे झुके हुए तल बनाए जाते हैं जो हूबहू आधुनिक पेचकस की तरह एक दूसरे से जुड़े होते हैं।
6. वेधक (Borer) - यह कुछ-कुछ मोटे किन्तु छोटे शल्कों तथा फलकों से इस तरह तैयार किया जाता है कि इसमें बाहर निकले हुए हिस्से के कंधे पर एक या दो दांते बनाकर एक मोटी नोक निकल आए।
विशेष :- प्राचीनतम एवं अपरिष्कृत हैण्डएक्स को ऐबीवेली तथा विकसित एवं परिष्कृत हैण्डएक्स को एश्युलियन
कहा जाता है।